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भारतीय संविधान का इतिहास

संविधान का अर्थ 
               




किसी भी देश का संविधान उसकी राजनीतिक व्यवस्था का वह बुनियादी सांचा - ढांचा निर्धारित करता है , जिसके अंतर्गत उसकी जनता शासित होती है । यह राज्य की विधायिका , कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे प्रमुख अंगों की स्थापना करता है , उसकी शक्तियों की व्याख्या करता है , उनके दायित्वों का सीमांकन करता है और उनके पारस्परिक तथा जनता के साथ संबंधों का विनियमन करता है । इस प्रकार किसी देश के संविधान को इसकी ऐसी आधार विधि कहा जा सकता है , जो उसकी राज्यव्यवस्था के मूल सिद्धांतों को निर्धारित करती है । वस्तुत : प्रत्येक संविधान उसके संस्थापकों एवं निर्माताओं के आदशों , सपनों तथा मूल्यों का दर्पण होता है । वह जनता की विशिष्ट सामाजिक , राजनीतिक और आर्थिक प्रकृति , आस्था एवं आकांक्षाओं पर आधारित होता है । 

संवैधानिक विकास 

भारत में नये गणराज्य के संविधान का शुभारंभ 26 जनवरी , 1950 को हुआ और भारत अपने लंबे इतिहास में प्रथम बार एक आधुनिक संस्थागत ढांचे के साथ पूर्ण संसदीय लोकतंत्र बना । 26 नवम्बर , 1949 को भारतीय संविधान सभा द्वारा निर्मित ' भारत का संविधान ' के पूर्व ब्रिटिश संसद द्वारा कई ऐसे अधिनियम / चार्टर पारित किये गये थे , जिन्हें भारतीय संविधान का आधार कहा जा सकता है। 
( 1 ) रेग्युलेटिंग एक्ट , 1773 : बंगाल का शासन गवर्नर जनरल तथा चार सदस्यीय परिषद में निहित किया गया । इस परिषद में निर्णय बहुमत द्वारा लिए जाने की भी व्यवस्था की गयी । इस अधिनियम द्वारा प्रशासक मंडल में वारेन हेस्टिंग्स को गवर्नर जनरल के रूप में तथा क्लैवरिंग , मॉनसन , बरवैल तथा फिलिप फ्रांसिस को परिषद के सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया । इन सभी का कार्यकाल पांच वर्ष का था तथा निदेशक बोर्ड की सिफारिश पर केवल ब्रिटिश सम्राट द्वारा ही इन्हें हटाया जा सकता था । 
( i ) मद्रास तथा बम्बई प्रेसीडेंसियों को बंगाल प्रेसीडेन्सी के अधीन कर दिया गया तथा बंगाल के गवर्नर जनरल को तीनों प्रेसीडेन्सियों का गवर्नर जनरल बना दिया गया । इस प्रकार वारेन हेस्टिग्स को भारत का प्रथम गवर्नर जनरल कहा जाता है ।
 ( ii ) सपरिषद गवर्नर जनरल को भारतीय प्रशासन के लिए कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया गया , किंतु इन कानूनों को लागू करने से पूर्व निदेशक बोर्ड की अनुमति प्राप्त करना अनिवार्य था ।
 ( iii ) इस अधिनियम द्वारा बंगाल ( कलकत्ता ) में एक उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गयी । इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अन्य न्यायाधीश थे । सर एलिजा इम्मे को उच्चतम न्यायालय ( सुप्रीम कोर्ट) का प्रथम मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया । इस न्यायालय  को दीवानी , फौजदारी , जल सेना तथा धार्मिक मामलों में व्यापक अधिकार दिया गया । न्यायालय को यह भी अधिकार था कि वह कम्पनी तथा सम्राट की सेवा में लगे व्यक्तियों के विरुद्ध मामले की सुनवायी कर सकता था। इस न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध इंग्लैंड स्थित प्रिवी कौंसिल में अपील की जा सकती थी ।
 (iv) संचालक मंडल का कार्यकाल चार वर्ष कर दिया गया तथा अब 500 पौंड के स्थान पर 1000 पौंड के अंशधारियों को संचालक चुनने का अधिकार दिया गया । इस प्रकार 1773 के एक्ट के द्वारा भारत में कंपनी के कार्यों में ब्रिटिश संसद का हस्तक्षेप व नियंत्रण प्रारंभ हुआ तथा कम्पनी के शासन के लिए पहली बार एक लिखित संविधान प्रस्तुत किया गया ।
 (2) 1781 का संशोधित अधिनियम : इस अधिनियम के द्वारा कलकत्ता की सरकार को बंगाल , बिहार और उड़ीसा के लिए भी विधि बनाने का अधिकार प्रदान किया गया । 
( i ) इस अधिनियम द्वारा सर्वोच्च न्यायालय पर यह रोक लगा दी गयी कि वह कम्पनी के कर्मचारियों के विरुद्ध कार्यवाही नहीं कर सकता , जो उन्होंने एक सरकारी अधिकारी की हैसियत से किया हो । 
( ii ) कानून बनाने तथा उसका क्रियान्वयन करते समय भारतीयों के सामाजिक तथा धार्मिक रीति - रिवाजों का सम्मान करने का भी निर्देश दिया गया । 
( 3 ) पिट्स इंडिया अधिनियम 1784 : इस अधिनियम को कम्पनी पर अधिकाधिक नियंत्रण स्थापित करने तथा भारत में कम्पनी की गिरती साख को बचाने के उद्देश्य से पारित किया गया । भारत में गवर्नर जनरल की परिषद की संख्या 4 से कम करके 3 कर दी गयी । इस परिषद को युद्ध , संधि , राजस्व , सैन्य शक्ति , देशी रियासतों आदि के अधीक्षण की शक्ति प्रदान की गयी ।
 (ii) कम्पनी के भारतीय अधिकृत प्रदेशों को पहली बार ब्रिटिश अधिकृत प्रदेश ' कहा गया । 
(iii) गवर्नर जनरल को देशी राजाओं से युद्ध तथा संधि से पूर्व कम्पनी के संचालकों से स्वीकृति लेना आवश्यक कर दिया गया ।
 (iv) इंग्लैंड में 6 आयुक्तों ( कमिश्नरों ) के एक ' नियंत्रक बोर्ड ' की स्थापना की गयी , जिसे भारत में अंग्रेजी अधिकृत क्षेत्र पर पूरा अधिकार दिया गया । इसे ' बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल ' के नाम से जाना गया । इसके सदस्यों की नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी । इसके 6 सदस्यों में एक ब्रिटेन का अर्द्धमंत्री , दूसरा विदेश सचिव तथा चार अन्य सम्राट द्वारा प्रिवी कौंसिल के सदस्यों द्वारा चुने जाते थे ।
 (v) इस ' बोर्ड ऑफ कंट्रोल ' ( नियंत्रक मंडल ) को कम्पनी के भारत सरकार के नाम आदेशों एवं निर्देशों को स्वीकृत अथवा अस्वीकृत करने का अधिकार प्रदान किया गया । 
( vi ) प्रांतीय परिषद के सदस्यों की संख्या भी 4 से घटाकर 3 कर दी गयी । प्रांतीय शासन को केन्द्रीय आदेशों का अनुपालन आवश्यक कर दिया गया अर्थात् बम्बई तथा मद्रास के गवर्नर पूर्णरूपेण गवर्नर जनरल के अधीन कर दिये गये । 
( vii ) कम्पनी के कर्मचारियों को उपहार लेने पर पूर्णतः प्रतिबंध लगा दिया गया । 
( viii ) भारत में नियुक्त अंग्रेज अधिकारियों के मामलों में सुनवायी के लिए | इंग्लैंड में एक कोर्ट की स्थापना की गयी । 
( 4 ) 1786 का अधिनियम : इस अधिनियम के द्वारा गवर्नर जनरल को विशेष परिस्थितियों में अपनी परिषद के निर्णयों को रद्द करने तथा अपने निर्णय लागू करने का अधिकार दिया गया । गवर्नर जनरल को मुख्य सेनापति की शक्तियां भी मिल गयीं । 
( 9 ) 1793 का राजपत्र : कम्पनी के कार्यों एवं संगठन में सुधार के लिए यह चार्टर पारित किया गया । इस चार्टर की प्रमुख विशेषता यह थी कि इसमें पूर्व के अधिनियमों के सभी महत्वपूर्ण प्रावधानों को शामिल किया गया था । इस अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं निम्न थीं : 
( 1 ) कम्पनी के व्यापारिक अधिकारों को अगले 20 वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया । विगत शासकों के व्यक्तिगत नियमों के स्थान पर ब्रिटिश भारत में लिखित विधि - विधानों द्वारा प्रशासन की आधारशिला रखी गयी । इन लिखित विधियों एवं नियमों की व्याख्या न्यायालय द्वारा किया जाना निर्धारित की गयी।
 ( iii ) गवर्नर जनरल एवं गवर्नरों की परिषदों की सदस्यता की योग्यता के लिए सदस्य को कम - से - कम 12 वर्षों तक भारत में रहने का अनुभव को आवश्यक कर दिया गया । 
( iv ) नियंत्रक मंडल के सदस्यों का वेतन अब भारतीय कोष से दिया जाना तय हुआ ।
 ( 6 ) 1813 का राजपत्र : कम्पनी एकाधिकार को समाप्त करने , ईसाई मिशनरियों द्वारा भारत में धार्मिक सुविधाओं की मांग , लॉर्ड वेलेजली की भारत में आक्रामक नीति तथा कम्पनी की सोचनीय आर्थिक स्थिति के कारण 1813 का चार्टर अधिनियम ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किया गया । इसे प्रमुख प्रावधान निम्न थे : कम्पनी का भारतीय व्यापार का एकाधिकार समाप्त कर दिया गया , यद्यपि उसका चीन से व्यापार तथा चाय के व्यापार पर एकाधिकार बना रहा ।
 ( ii ) ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म प्रचार की अनुमति दी गयी ।
 ( ii ) भारतीयों की शिक्षा के लिए सरकार को प्रतिवर्ष 1 लाख रुपये खर्च करने का निर्देश दिया गया।
 ( iv ) कम्पनी को अगले 20 वर्षों के लिए भारतीय प्रदेशों तथा राजस्व पर नियंत्रण का अधिकार दे दिया गया । 
( v ) नियंत्रण बोर्ड की शक्ति को परिभाषित किया गया तथा उसका विस्तार भी कर दिया गया ।
 ( 7 ) 1833 का राजपत्र : 1813 के अधिनियम के बाद भारत में कम्पनी के साम्राज्य में काफी वृद्धि हुई तथा महाराष्ट्र , मध्य भारत , पंजाब , सिन्ध , ग्वालियर , इंदौर आदि पर अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया । इसी प्रभुत्व को स्थायित्व प्रदान करने के लिए 1833 का चार्टर अधिनियम पारित किया गया । इसके निम्न मुख्य प्रावधान थे : 
(i) कम्पनी के चाय एवं चीन के साथ व्यापार के एकाधिकार को समाप्त कर उसे पूर्णतः प्रशासनिक और राजनीतिक संस्था बना दिया गया ।
 ( ii ) बंगाल के गवर्नर जनरल को सम्पूर्ण भारत का गवर्नर जरनल घोषित किया गया । सम्पूर्ण भारत का प्रथम गवर्नर जनरल लॉर्ड बैंटिक बना ।
( iii) भारत के प्रदेशों पर कम्पनी के सैनिक तथा असैनिक शासन के निरीक्षण और नियंत्रण का अधिकार भारत के गवर्नर जनरल को दिया गया । भारत के गवर्नर जनरल की परिषद द्वारा पारित कानूनों को अधिनियम की संज्ञा दी गयी । ( iv ) विधि के संहिताकरण के लिए आयोग के गठन का प्रावधान किया गया ।
 ( v ) भारत में दास - प्रथा को गैर - कानूनी घोषित किया गया । फलस्वरूप 1843 में भारत में दास - प्रथा की समाप्ति की घोषणा हुई ।
( vi ) इस अधिनियम द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया कि कम्पनी के प्रदेशों में रहने वाले किसी भी भारतीय को केवल धर्म , वंश , रंग या जन्मस्थान इत्यादि के आधार पर कम्पनी के किसी पद से जिसके वह योग्य हो , बाँचत नहीं किया जायेगा ।
( vii ) सपरिषद गवर्नर जनरल को ही सम्पूर्ण भारत के लिए कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया गया और मद्रास - बम्बई के परिषदों के कानून बनाने का अधिकार समाप्त कर दिये गये । इस अधिनियम द्वारा भारत में केन्द्रीकरण का प्रारंभ किया गया , जिसका सबसे प्रबल प्रमाण विधियों को संहिताबद्ध करने के लिए एक आयोग का गठन था । इस आयोग का प्रथम अध्यक्ष लॉर्ड मैकाले को नियुक्त किया गया। ( 8 ) 1853 का राजपत्र : 1853 का राजपत्र भारतीय शासन ( ब्रिटिश कालीन ) के इतिहास में अंतिम चार्टर एक्ट था । यह अधिनियम मुख्यतः भारतीयों की ओर से कम्पनी के शासन की समाप्ति की मांग तथा तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी की रिपोर्ट पर आधारित था । इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्न थीं :
( i ) ब्रिटिश संसद को किसी भी समय कम्पनी के भारतीय शासन को समाप्त करने का अधिकार प्रदान किया गया ।
 ( ii) कार्यकारिणी परिषद के कानून सदस्य को परिषद का पूर्ण सदस्य का दर्जा प्रदान किया गया ।
( iii ) बाल के लिए पृथक गवर्नर की नियुक्ति की व्यवस्था की गयी ।
( iv ) गवर्नर जनरल को अपनी परिषद के उपाध्यक्ष की नियुक्ति का अधिकार दिया गया ।
( v ) विधायी कार्यों को प्रशासनिक कार्यों से पृथक करने की व्यवस्था की गयी ।
( vi ) निदेशक मंडल में सदस्यों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गयी ।
( vii ) कम्पनी के कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए प्रतियोगी परीक्षा की व्यवस्था की गयी ।
( viii ) भारतीय विधि आयोग की रिपोर्ट पर विचार करने के लिए इंग्लैंड में विधि आयोग के गठन का प्रावधान किया गया।

क्राउन के शासन काल में संवैधानिक विकास
 ( 1 ) 1858 का अधिनियम : 1853 की चार्टर में कम्पनी को शासन के लिए चूंकि किसी निश्चित अवधि के लिए प्राधिकृत नहीं किया गया था , इसलिए किसी भी समय सत्ता का हस्तांतरण ब्रिटिश क्राउन को संसद के द्वारा हस्तांतरित किया जा सकता था । 1857 के गदर ने शासन की असंतोषजनक नीतियां उजागर कर दी थी , जिससे संसद को कम्पनी को पदच्युत करने का बहाना मिल गया । साम्राज्य की सुरक्षा के लिए ब्रिटिश संसद ने कई अधिनियम पारित किये जो भारतीय प्रशासन का आधार बने । 1858 के अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्न थे :
 ( i) भारत में कम्पनी के शासन को समाप्त कर शासन का उत्तरदायित्व ब्रिटिश संसद को सौंप दिया गया । भारतीय राजव्यवस्था
( ii )अब भारत का शासन ब्रिटिश साम्राज्ञी की ओर से राज्य सचिव को चलाना था , जिसकी सहायता के लिए सदस्यीय भारत परिषद का गठन किया गया । अब भारत शासन से संबंधित सभी कानूनों एवं कार्यवाहियों पर भारत सचिव की स्वीकृति अनिवार्य कर दी गयी ।
 (iii) भारत के गवर्नर जनरल का नाम वायसराय ' ( क्राउन का प्रतिनिधि ) कर दिया गया तथा उसे भारत सचिव की आज्ञा के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य किया गया ।
 ( iv) भारत मंत्री को वायसराय से गुप्त पत्र व्यवहार तथा ब्रिटिश संसद में प्रतिवर्ष भारतीय बजट पेश करने का अधिकार दिया गया ।
 ( v ) कम्पनी की सेवा को ब्रिटिश शासन के अधीन कर दिया गया ।
( vi ) इस प्रकार भारत का प्रथम वायसराय लॉर्ड कैनिंग बना।
1 नवम्बर , 1858 को ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने भारत के संबंध में एक महत्वपूर्ण नीतिगत घोषणा की । इस घोषणा की महत्वपूर्ण बातें निम्न था
( i) भारतीय प्रजा को साम्राज्य के अन्य भागों में रहने वाली ब्रिटिश प्रजा के समान माना जायेगा ।
 ( ii ) भारतीय लोगों के साथ लोक सेवाओं में अपनी शिक्षा , योग्यता तथा विश्वसनीयता के आधार पर स्वतंत्र एवं निष्पक्ष भर्ती में भेदभाव नहीं किया जायेगा ।
 ( iii) भारत के लोगों के भौतिक एवं नैतिक उन्नति के प्रयास किये जायेंगे ।
 ( 2 ) भारतीय परिषद अधिनियम 1861:  1861 का भारतीय परिषद अधिनियम भारत के संवैधानिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण और युगांतकारी घटना है । यह दो मुख्य कारणों से महत्वपूर्ण है । एक तो यह कि इसने गवर्नर जनरल को अपनी विस्तारित परिषद में भारतीय जनता के प्रतिनिधियों को नामजद करके उन्हें विधायी कार्य से संबद्ध करने का अधिकार दिया । दूसरा यह कि इसने गवर्नर जनरल की परिषद की विधायी शक्तियों का विकेन्द्रीकरण कर दिया अर्थात बम्बई और मद्रास की सरकारों को भी विधायी शक्ति प्रदान की गयी । इस अधिनियम की अन्य महत्वपूर्ण बातें निम्न थी
 ( i ) गवर्नर जनरल की विधान परिषद की संख्या में वृद्धि की गयी । अब इस परिषद में कम - से - कम 6 तथा अधिकतम 12 सदस्य हो सकते थे । उनमें कम - से - कम आधे सदस्यों का गैर - सरकारी होना जरूरी था ।
( i ) गवर्नर जनरल को विधायी कार्यों हेतु नये प्रांत के निर्माण का तथा नव - निर्मित प्रांत में गवर्नर या लेफ्टिनेंट गवर्नर को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया ।
( iii) गवर्नर जनरल को अध्यादेश जारी करने का अधिकार दिया गया । 1865 के अधिनियम के द्वारा गवर्नर जनरल को प्रेसीडेन्सियों तथा प्रांतों की सीमाओं को उद्घोषणा द्वारा नियत करने तथा उनमें परिवर्तन करने का अधिकार दिया गया । इसी तरह 1869 के अधिनियम के द्वारा गवर्नर जनरल को विदेश में रहने वाले भारतीयों के संबंध में कानून बनाने का अधिकार दिया गया । 1873 के अधिनियम के द्वारा ईस्ट इंडिया कम्पनी को किसी भी समय भंग करने का प्रावधान किया गया । इसी के अनुसरण में । जनवरी , 1874 को ईस्ट इंडिया कम्पनी को भंग कर दिया गया ।
 ( 3 ) शाही उपाधि अधिनियम , 1876 : इस अधिनियम के अंतर्गत निम्न कार्य किये गयेः
(i)  28 अप्रैल , 1876 को एक घोषणा द्वारा महारानी विक्टोरिया को ' भारत की साम्राज्ञी ' घोषित किया गया ।
( ii ) औपचारिक रूप से भारत सरकार का ब्रिटिश सरकार को अन्तरण मान्य किया गया ।
( 4 ) भारतीय परिषद अधिनियम 1892 : 1861 के अंतर्गत गैर - सरकारी सदस्य या तो बड़े जमींदार होते थे या अवकाश प्राप्त अधिकारी या भारत के राज परिवारों के सदस्य। प्रतिनिधित्व की आम आकांक्षा की पुष्टि इससे नहीं हुई । इसी बीच भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा अधिक प्रतिनिधित्व की मांग की जाती रही । यूरोपीय व्यापारियों की ओर से भी भारत सरकार को इंग्लैंड में स्थित इंडिया ऑफिस से अधिक स्वतंत्रता की मांग की जाती रही । सर जॉर्ज चिजनी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनी जिसके सुझावों का समावेश 1892 के अधिनियम में किया गया । इस अधिनियम की प्रमुख बातें निम्न थी :
 ( i ) इस अधिनियम के द्वारा केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधान परिषद् में ' अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गयी और उनके निर्वाचन का भी विशेष उल्लेख किया गया । यद्यपि इसके द्वारा सीमित चुनाव की ही व्यवस्था हुई , लेकिन भारत के मुख्य सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया गया।
 ( i ) परिषद के अधिकारों में भी वृद्धि की गयी । वार्षिक आय या बजट का ब्योरा परिषद में प्रस्तुत करना आवश्यक हो गया । सदस्यों को कार्यपालिका के काम के बारे में प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया । यद्यपि इस अधिनियम द्वारा विधायिका के सदस्य के सीमित निर्वाचन की शुरूआत हुई , फिर भी इस अधिनियम में अनेक खामियां थी जिनके कारण भारतीय राष्ट्रवादियों ने इस अधिनियम की बार - बार आलोचना की । यह माना गया कि स्थानीय निकायों का चुनाव मंडल बनाना एक प्रकार से इनके द्वारा मनोनीत करना ही है । विधान मंडलों की शक्तियां भी काफी सीमित थीं । सदस्य अनुपूरक प्रश्न नहीं पूछ सकते थे । किसी प्रश्न का उत्तर देने से इंकार किया जा सकता था । इसके अलावा वर्गों का प्रतिनिधित्व भी पक्षपातपूर्ण था ।
( 5 ) भारतीय परिषद अधिनियम 1909 : 1882 का अधिनियम राष्ट्रवादियों को संतुष्ट नहीं कर सका था , साथ ही राष्ट्रीय आंदोलन पर उग्रवादी नेताओं का प्रभाव बढ़ता जा रहा था । सेक्रेटरी ऑफ स्टेट लॉर्ड माले तथा भारत में वायसराय लॉर्ड मिंटो दोनों ही सहमत थे कि कुछ सुधारों की आवश्यकता है । सर अरुण्डेल कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर फरवरी 1909 ई . में नया अधिनियम पारित किया गया जिसे भारतीय परिषद् अधिनियम 1909 और ' मार्ले - मिंटो सुधार ' के नाम से जाना गया । इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्न थे ।
( i ) इस अधिनियम के द्वारा केन्द्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गयी । प्रांतीय विधान परिषदों में गैर - सरकारी बहुमत स्थापित किया गया ।
( ii ) सभी निर्वाचित सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से चुने जाते थे । स्थानीय निकायों से निर्वाचन परिषद का गठन होता था । ये प्रांतीय विधान परिषदों के सदस्यों का चुनाव करती थी । प्रांतीय विधान परिषद के सदस्य केन्द्रीय व्यवस्थापिका के सदस्यों का चुनाव करते थे ।
 ( iii ) पहली बार पृथक निर्वाचन व्यवस्था का प्रारंभ किया गया । मुसलमानों को प्रतिनिधित्व में विशेष रियायत दी गयी । उन्हें केन्द्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों में जनसंख्या के अनुपात से अधिक प्रतिनिधि भेजने का अधिकार दिया गया । ( iv ) गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में एक भारतीय सदस्य को नियुक्त करने की व्यवस्था की गयी । प्रथम भारतीय सदस्य के रूप में सत्येन्द्र सिन्हा की नियुक्ति हुई ।
( v ) विधायिका के कार्यक्षेत्र में विस्तार किया गया । सदस्यों को बजट प्रस्ताव करने और जनहित के विषयों पर प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया । जिन विषयों को विधायिका के क्षेत्र से बाहर रखा गया था , वे थे सशस्त्र सेना , विदेश संबंध और देशी रियासतें ।
इस अधिनियम की सबसे बड़ी त्रुटि यह थी कि पृथक अथवा साम्प्रदायिक आधार पर निर्वाचन की पद्धति लागू की गयी । इसके अलावा जो चुनाव पद्धति अपनायी गयी , वह इतनी अस्पष्ट थी कि जन प्रतिनिधित्व प्रणाली एक प्रकार की बहुत - सी छननियों में से छानने की प्रक्रिया बन गयी । संसदीय प्रणाली । दे दी गयी , परंतु उत्तरदायित्व नहीं दिया गया ।
( 6 ) भारतीय परिषद अधिनियम 1919 : 20 अगस्त , 1917 को तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया , मॉटेग्यु ने हाउस ऑफ कॉमंस में एक ऐतिहासिक वक्तव्य दिया , जिसमें ब्रिटेन के इरादे का बयान किया गया : " शासन की सभी शाखाओं में भारतीयों को शामिल करना और स्वायत्तशासी संस्थाओं का क्रमिक विकास , जिससे ब्रिटिश भारत के अभिन्न अंग के रूप में उत्तरदायी सरकार की उत्तरोत्तर उपलब्धि हो सके । " इसी घोषणा को कार्यान्वित करने के लिए ' मोंटफोर्ड रिपोर्ट -1918 ' प्रकाशित की गयी , जो 1919 के अधिनियम का आधार बना । इस एक्ट द्वारा तत्कालीन भारतीय संवैधानिक प्रणाली में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गये :
( i ) केन्द्रीय विधान परिषद का स्थान राज्य परिषद ( उच्च सदन ) तथा विधान सभा ( निम्न सदन ) वाले द्विसदनीय विधान मंडल ने ले लिया । हालांकि , सदस्यों को नामजद करने की कुछ शक्ति बनाये रखी गयी , फिर भी प्रत्येक सदन में निर्वाचित सदस्य का बहुमत होना सुनिश्चित किया गया ।
( ii ) सदस्यों का चुनाव सीमांकित निर्वाचन क्षेत्रों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाना था । मताधिकार का विस्तार किया गया । निर्वाचक मंडल के लिए अर्हताएं साम्प्रदायिक समूह , निवास और संपत्ति पर आधारित थीं ।
( iii ) आठ प्रमुख प्रांतों में जिन्हें गवर्नर का प्रांत कहा जाता था , " वैद्ध शासन " की एक नयी पद्धति शुरू की गयी । प्रांतीय सूची के विषयों को दो भागों में बांटा गया- सुरक्षित विषय और हस्तांतरित विषय । सुरक्षित सूची के विषय गवर्नर के अधिकार क्षेत्र में थे और वह इन विभागों अपने कार्यकारिणी की सहायता से देखता था । हस्तांतरित विषय भारतीय मंत्रियों के अधिकार में थे , जिनकी नियुक्ति भारतीय सदस्यों में से होती थी ।
( iv ) अधिनियम के प्रारंभ के दस वर्ष बाद द्वैद्ध शासन प्रणाली तथा संवैधानिक सुधारों के व्यावहारिक रूप की जांच के लिए और उत्तरदायी सरकार की प्रगति से संबंधित मामलों पर सिफारिश करने के लिए ब्रिटिश संसद द्वारा एक आयोग ने गठन की व्यवस्था की गयी । इसी प्रावधान के अनुसार 1927 में साईमन आयोग का गठन किया गया । 1919 के अधिनियम में अनेक खामियां थीं । इसने जिम्मेदार सरकार की मांग को पूरा नहीं किया । इसके अलावा प्रांतीय विधान मंडल गवर्नर जनरल की स्वीकृति के बगैर अनेक विषयों में विधेयक पर बहस नहीं कर सकते थे । सिद्धांत रूप में केन्द्रीय विधान मंडल सम्पूर्ण क्षेत्र में कानून बनाने के लिए सर्वोच्च तथा सक्षम बना रहा । केन्द्र तथा प्रांतों के बीच शक्तियों के बंटवारे के बावजूद ब्रिटिश भारत का संविधान एकात्मक राज्य का संविधान ही बना रहा । प्रांतों में द्वैड शासन पूरी तरह विफल रहा । गवर्नर का पूर्ण वर्चस्व कायम रहा । वित्तीय शक्ति के अभाव में मंत्री अपनी नीतियों को प्रभावी रूप से कार्यान्वित नहीं कर सकते थे । इसके अलावा मंत्री विधान मंडल के प्रति सामूहिक रूप से जिम्मेदार नहीं थे । वस्तुतः मंत्रियों को दो मालिकों को खुश रखना पड़ता था- एक तो विधान परिषद को और दूसरा गवर्नर जनरल को ।
 ( 7 ) साइमन कमीशन 1927 : 1919 के अधिनियम की धारा 842 ( जॉन साइमन की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया । इस आयोग में एक भी भारतीय सदस्य नहीं था अतः भारतीयों द्वारा इसका विरोध किया गया । आयोग की रिपोर्ट जून 1930 में प्रकाशित के अनुसार हुई । साइमन कमीशन द्वारा डोमिनियन दर्जे की मांग को ठुकरा दिये जाने के बाद कांग्रेस ने 1929 के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य ' का प्रस्ताव पारित किया गया ।
 ( 8 ) नेहरू रिपोर्ट : कांग्रेस पार्टी ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट , लॉर्ड वर्कनहेड की इस चुनौती को स्वीकार किया कि एक ऐसे संविधान की रचना की जाये , जो भारत के हर दल को स्वीकार हो । इसके लिए 28 फरवरी , 1928 ई . को दिल्ली में एक सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया गया । संविधान का प्रारूप बनाने के लिए पॉडत मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में नौ सदस्यों की एक समिति बनायी गयी । इस समिति द्वारा प्रस्तुत प्रारूप को ही नेहरू रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है । नेहरू रिपोर्ट लखनऊ के सर्वदलीय सम्मेलन में स्वीकार की गयी , लेकिन दिसम्बर 1928 ई . में कलकत्ता के सर्वदलीय सम्मेलन में इस पर गंभीर आपत्ति उठायी गयी । नेहरू रिपार्ट के साम्प्रदायिक समझौता ' में सभी समुदायों के संयुक्त निर्वाचक समूह का प्रस्ताव था । इस प्रस्ताव पर सबसे बड़ी आपत्ति मुहम्मद अली जिन्ना ने की ।
( 9 ) गोलमेज सम्मेलन 1930-1932 : साइमन आयोग की रिपोर्ट के प्रकाशित होने के पहले ही लॉर्ड इविन ने घोषणा की थी कि रिपोर्ट को गोलमेज सम्मेलन में विचार के लिए रखा जायेगा । पहला सम्मेलन 12 नवम्बर , 1930 को हुआ । यह सम्मेलन किसी निश्चित सहमति पर नहीं पहुंच सका । पहले सम्मेलन में कांग्रेस ने भाग नहीं लिया था । फरवरी 1931 के ' गांधी - इविन समझौते ' के फलस्वरूप दूसरे गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस की तरफ से गांधीजी ने सम्मेलन में भाग लिया । श्रीमती सरोजिनी नायडू और पंडित मदन मोहन मालवीय ने ब्रिटिश सरकार के मनोनीत सदस्य के रूप में भाग लिया । दूसरे समुदायों के प्रतिनिधियों को भी आमंत्रित किया गया । इस सम्मेलन के बाद ही ' साम्प्रदायिक अधिनिर्णय '
( Communal Award ) और पूना समझौता का आविर्भाव हुआ , जिनके द्वारा धार्मिक समूहों और हिंदुओं के विभिन्न वर्ण समूहों को विशेष प्रतिनिधित्व दिया गया । कांग्रेस और अन्य राष्ट्रीय समूहों ने इन प्रावधानों का जमकर विरोध किया । तीसरा और अंतिम गोलमेज सम्मेलन नवम्बर 1932 ई . में हुआ । एक श्वेत पत्र जारी किया गया , जिस पर ब्रिटेन की संसद की संयुक्त प्रवर समिति ने विचार किया । इसके सुझावों के आधार पर भारत सरकार अधिनियम 1935 बनाया गया ।
( 10 ) भारत सरकार अधिनियम 1935 : 1935 के भारत सरकार अधिनियम में 321 अनुच्छेद तथा 10 अनुसूचियां थीं। इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्न थे
 ( i) इस अधिनियम द्वारा अखिल भारतीय संघ का प्रावधान किया गया , जिसमें ब्रिटिश प्रांतों का शामिल होना अनिवार्य था , किंतु देशी रियासतों का शामिल होना नरेशों की इच्छा पर निर्भर था।
( ii ) संघ तथा केन्द्र के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया । विभिन्न विषयों की तीन सूचियां बनायी गयी- संघीय सूची , प्रांतीय सूची तथा समवर्ती सूची ।
 ( iii) 1919 के अधिनियम द्वारा जो द्वैध शासन प्रांतों में लागू किया गया था , उसे केन्द्र में लागू किया गया । केन्द्रीय सरकार के विषयों को दो भागों में विभाजित किया गया- संरक्षित विषय और हस्तांतरित विषय । संरक्षित विषय गवर्नर जनरल के अधिकार क्षेत्र में था , जबकि हस्तांतरित विषयों का शासन मंत्रिपरिषद को सौंपा गया ।
 ( iv ) केन्द्र में द्विसदनात्मक विधायिका की स्थापना की गयी- राज्य परिषद ( उच्च सदन ) तथा केन्द्रीय विधान सभा
 ( निम्न सदन ) ।
 ( v ) प्रांतों में कैद शासन को समाप्त कर प्रांतीय स्वायत्तता के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया ।
( vi ) प्रांतीय विधायिका को प्रांतीय सूची तथा समवर्ती सूची पर कानून बनाने का अधिकार दिया गया ।
 ( vii ) प्रांतीय विधान मंडल को अनेक शक्तियां दी गयी । मत्रिपरिषद को विधानमंडल के प्रति जिम्मेदार बना दिया गया और वह एक अविश्वास प्रस्ताव पारित कर उसे पदच्युत कर सकता था । विधान मंडल प्रश्नों तथा अनुपूरक प्रश्नों के माध्यम से प्रशासन पर कुछ नियंत्रण रख सकता था ।
 ( viii ) इस अधिनियम के अधीन बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया और उड़ीसा तथा सिंध नाम से दो नये प्रांत बना दिये गये ।
( ix ) इस अधिनियम द्वारा एक संघीय बैंक और एक संघीय न्यायालय की स्थापना का भी प्रावधान किया गया ।
( 17 ) भारतीय स्वतंत्रता अधिनिमय 1947 : माउन्टबेटेन योजना के आधार पर ब्रिटिश संसद द्वारा पारित भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के प्रमुख प्रावधान निम्न थे
 ( i ) भारत तथा पाकिस्तान नामक दो डोमिनियनों की स्थापना के लिए 15 अगस्त , 1947 की तारीख निश्चित की गयी ।
 ( i ) इसमें भारत का क्षेत्रीय विभाजन भारत तथा पाकिस्तान के रूप में करने तथा बंगाल एवं पंजाब में दो - दो प्रांत बनाने का प्रस्ताव किया गया । पाकिस्तान को मिलने वाले क्षेत्रों को छोड़कर ब्रिटिश भारत में सम्मिलित सभी प्रांत भारत में सम्मिलित माने गये ।
( iii ) पूर्वी बंगाल , पश्चिमी बंगाल और असम के सिलहट जिले को पाकिस्तान में सम्मिलित किया जाना था ।
( iv ) भारत में महामहिम की सरकार ( His Majesty's Government ) का उत्तरदायित्व तथा भारतीय रियासतों पर महामहिम का अधिराजत्व 15 अगस्त , 1947 को समाप्त हो जायेगा ।
( v ) भारतीय रियासतें इन दोनों में से किसी में शामिल हो सकती थीं ।
 ( vi ) प्रत्येक डोमिनियन के लिए पृथक गवर्नर जरनल होगा जिसे महामहिम द्वारा नियुक्त किया जायेगा । गवर्नर जनरल डोमिनियन की सरकार के प्रयोजनों के लिए महामहिम का प्रतिनिधित्व करेगा ।
( vii ) प्रत्येक डोमिनियन के लिए पृथक विधानमंडल होगा , जिसे विधियां बनाने का पूरा प्राधिकार होगा तथा ब्रिटिश संसद उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकेगी ।
( viii ) डोमिनियम की सरकार के लिए अस्थायी उपबंध के द्वारा दोनों संविधान सभाओं की संसद का दर्जा तथा डोमिनियन विधानमंडल की पूर्ण शक्तियां प्रदान की गयी ।
 ( ix ) इसमें गवर्नर जनरल को एक्ट के प्रभावी प्रवर्तन के लिए ऐसी व्यवस्था करने हेतु , जो उसे आवश्यक तथा समीचीन प्रतीत हो , अस्थायी आदेश जारी करने का प्राधिकार दिया गया ।
( x ) इसमें सेक्रेटरी ऑफ द स्टेट की सेवाओं तथा भारतीय सशस्त्र बल , ब्रिटिश स्थल सेना , नौसेना और वायु सेना पर महामहिम की सरकार का अधिकार क्षेत्र अथवा प्राधिकार जारी रहने की शर्ते निर्दिष्ट की गयी थी ।
 इस प्रकार भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के अनुसार 14-15 अगस्त , 1947 को भारत तथा पाकिस्तान नामक दो स्वतंत्र राष्ट्रों का गठन कर दिया गया । इस प्रकार भारतीय संविधान की बहुत - सी संस्थाओं का विकास संवैधानिक विकास के लम्बे समय में हुआ , जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है । इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है संघीय व्यवस्था । यह कांग्रेस और मुस्लिम लीग द्वारा 1916 ई . के लखनऊ समझौते में स्वीकार की गयी थी । साइमन कमीशन ने भी संघीय व्यवस्था पर बल दिया और 1935 ई . के अधिनिमय ने संघीय व्यवस्था की स्थापना की , जिसमें प्रांतों के अधिकार ब्रिटेन के क्राउन द्वारा प्राप्त हुए थे । जब भारत स्वतंत्र हुआ तब तक राष्ट्रीय आन्दोलन के नेता संघीय व्यवस्था के लिए वचनबद्ध हो चुके थे । संसदीय व्यवस्था , जो कार्यपालिका और विधायिका के संबंधों को परिभाषित करती है , भारत में अपरिचित नहीं थी । इस तरह भारतीय संविधान , संविधान निर्माताओं की बुद्धिमानी और सूक्ष्म दृष्टि और कालक्रम में विकसित संस्थाओं और कार्यविधियों का एक अपूर्व सम्मिश्रण है ।